था बारिश का शुकराना, उसका छाता लेकर आना,
छाते की छत बनाकर, नज़रों से मुझे बुलाना…
फिर भरे बाजार की सुन्नी राहें, मीलों चलते जाना,
छाते को पकडे हाथों की, उंगलिओं का टकराना…
मेरी शर्ट और उसकी कुर्ती के, सांसों का रुक जाना,
फिर बिना पते की चिठ्ठी जैसे, लौट बहीं आ जाना…
यही रोज का था फ़साना, यही रोज का था फ़साना…
जो आज है बनकर रह गया यादों का अफ़साना।
अब भी मैं इंतज़ार में, बिन बारिश भरे बाज़ार में,
भीग रहां हूँ अकेला,
कभी लौट कर आएगा, यार मेरा अम्ब्रेला…
यार मेरा अम्ब्रेला…
उपिंदर वडैच